इक रोज़..
इक रोज़ हमसे कहने लगी एक ग़ुल बदन..
ऐनक से बांध रखी है क्यों आप ने रसन (डोरी)..
मिल्ता है क्या इसी से यह अंदाज़-ऐ-फिक्र-ओ-फन..
हम ने कहा के ऐसा नहीं है जनाब-ऐ-मन..
बैठे जहां हसीं हों इक बज्मो-आम में..
रखतें हैं हम निगाह को अपनी लगाम में....
साग़र ख़य्यामी...
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