अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो
अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो
मुझसे बिखरे हुये गेसु नहीं देखे जाते
सुर्ख़ आंखो की कसम, कांपती पलकों की कसम
थरथराते हुये आंसू नहीं देखे जाते
अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो....
अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो
मेरी आहों से ये रुखसार न कुमला जायें
ढूंढती होगी तुम्हें रस में नहाई हूयी रात
जायो कलियां न कहीं सेज की मुर्झा जायें
अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो.....
अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो
मैं इस उजड़े हुये पहलू में बैठा लूं न कहीं
लब-ऐ-शीरीं का नमक, आरिज-ऐ-नमकीं की मिठास
अपने तरसे हुये होठों में चुरा लूं कहीं
अब तुम आग़ोश-ऐ-तस्सवुर में भी आया न करो..........
कैफी आज़मीं..
1 Comments:
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