फिर से...
फिर से मोसम बहारों का आने को है, फिर से रंगे ज़माना बदल जायेगा...
अबकी बज़्म-ए-चरागां सजा लेंगे हम, यह भी अरमान दिल का निकल जायेगा...
आप कर दें जो मुझ पे निगाहे करम, मेरी उल्फत का रह जायेगा कुछ भरम..
यूं फसाना तो मेरा रहेगा वोही, सिर्फ उन्वान उस का बदल जायेगा...
फीकी-फीकी सी क्यों शाम-ए-मयखाना है, लुत्फे साकी भी कम खाली पयमाना है..
अपनी नज़रों से ही कुछ पिला दीजीये, रंग महफिल का खुद ही बदल जायेगा...
मेरे मिटने का उनको ज़रा ग़म नहीं, ज़ुल्फ भी उनकी ए-दोस्त बरहम नहीं...
अपने होने न होने से होता है क्या, काम दुनिया का यूं भी तो चल जायेगा...
आप ने दिल जो ज़ाहिद का तोड़ा तो क्या, आप ने उस की दुनिया को छोड़ा तो क्या..
आप इतने भी आखिर परेशां न हों, वो संभलते संभलते संभल जायेगा...
ज़ाहिद......